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सई परांजपे: 'महिला निर्देशक जो संवेदनशीलता ला सकती हैं वो पुरुष निर्देशक नहीं ला सकते'

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image BBC सई परांजपे की फ़िल्म 'स्पर्श' को कई अवॉर्ड मिले थे

सई परांजपे बॉलीवुड की पुरुष प्रधान दुनिया में लंबे समय से बतौर निर्देशक और पटकथा लेखक जमी हुई हैं. वो अब तक चार राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार और दो फ़िल्मफेयर अवॉर्ड जीत चुकी हैं.

उनकी फ़िल्में स्पर्श, कथा, चश्मे-बद्दूर और दिशा, जब आईं तब सुर्ख़ियों में रहीं. इसके अलावा सई ने लंबा समय दूरदर्शन में बिताया है और थिएटर भी करती रही हैं. कला के क्षेत्र में उनके योगदान ने उन्हें साल 2006 में पद्म भूषण सम्मान भी दिलाया है.

अपनी पहली फ़िल्म 'स्पर्श' से उन्होंने फ़िल्मी दुनिया में मज़बूती से पांव जमाए थे. इस फ़िल्म को बनाना उनके लिए बहुत आसान नहीं था.

इसकी स्क्रिप्ट के साथ उन्होंने कई नामचीन निर्माताओं के यहां चक्कर भी लगाए. इस संघर्ष को जानने के लिए ये पूरा इंटरव्यू आप यहांदेख सकते हैं.

फ़िल्म अभिनेत्री तनुजा की मदद से उन्होंने इसकी स्क्रिप्ट संजीव कुमार को भी सुनाई.

उस वाकये को याद करते हुए परांजपे ने बताया, "मुझे याद है कि वो रेशमी लुंगी पहने हुए थे और हमसे मिलकर जरा भी ख़ुश नहीं थे. उन्होंने कहा कि तुम्हारे पास 20 मिनट का समय है. मैंने कहा ठीक है मैं सुनाती हूँ और फिर देखते हैं कि क्या होता है."

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"फिर उन्होंने कहा कि अगर आपको एतराज़ ना हो तो मैं दाढ़ी बना लूँ. संजीव कुमार ने अपने चेहरे पर साबुन लगाया और मैं उन्हें सुनाने लगी. काश उस वक़्त की कोई तस्वीर ले लेता और टेलीवाइज़ करता. धीरे-धीरे मैंने देखा कि उनका ब्रश रुक गया और उनकी बॉडी लैंग्वेज बदल गई. वो आगे झुक कर सुनते ही रहे."

संजीव कुमार और तनुजा इस फ़िल्म को करने के लिए तैयार थे लेकिन बासु भट्टाचार्य के निर्माता होने की बात सुनकर संजीव कुमार ने कदम वापस खींच लिए. क्योंकि इससे पहले संजीव कुमार और तनुजा, दोनों ही उनके साथ काम कर चुके थे और मेहनताने को लेकर उनका अनुभव अच्छा नहीं रहा था.

आख़िर में ये फ़िल्म मिली नसीरुद्दीन शाह को, जो पुणे फ़िल्म इंस्टीट्यूट से ग्रेजुएट होकर निकले ही थे.

नसीरुद्दीन शाह को हीरो के तौर पर चुनने के बाद सई परांजपे ने ऐसा कुछ किया कि जिसको लेकर उन्हें आज तक अफ़सोस है.

उन्होंने बताया, "नसीर और तनु की जोड़ी शायद ना जमे, इसलिए मैंने एक ऐसी बात की जिसके लिए मैं आज तक शर्मिंदा हूँ और अपने करियर में जो चुनिंदा बुरी चीज़ें की हैं उनमें तनुजा के साथ मेरा बर्ताव था."

"मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि उसे बताती कि तनु ऐसा-ऐसा हुआ है क्या करें? लेकिन मैंने फ़िल्मी रास्ता अपनाया, कुछ किया ही नहीं उसका फ़ोन आया तो जवाब नहीं दिया, बहुत शर्मिंदा हूँ अपने रवैये पर."

नसीरुद्दीन शाह के सामने शबाना आज़मी को ये फ़िल्म मिली. फ़िल्म तैयार हुई और उसे तीन अवॉर्ड मिले – सर्वश्रेष्ठ हिंदी फ़िल्म, सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए सई परांजपे को और सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिए नसीरुद्दीन शाह को.

इससे जुड़ा एक और क़िस्सा बताते हुए सई परांजपे कहती हैं, "जब अवॉर्ड का एलान हुआ तो नसीर शायद हैदराबाद या चेन्नई में कहीं शूटिंग कर रहे थे. वो संजीव कुमार के साथ थे और एलान सुनकर संजीव ने कहा 'अरे वाह-वाह पार्टी देते हैं' तो संजीव ने जश्न मनाने के लिए पार्टी दी और पूछा कि रोल क्या था?"

"तो नसीर ने बताया कि एक नेत्रहीन टीचर का था, तो संजीव ने कहा मेरे ख़याल से ये रोल मैं करने वाला था, शायद मुझे भी अवॉर्ड मिल जाता."

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'मैं अव्वल दर्जे की लेखिका और दोयम दर्जे की निर्देशक हूँ' image BBC सई परांजपे ने फ़िल्मों में जाने से पहले आठ साल दूरदर्शन के साथ गुज़ारे

स्पर्श (1980) ने उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाई.

इस फ़िल्म में एक दृष्टिहीन स्कूल प्रिंसिपल (नसीरुद्दीन शाह) और एक टीचर (शबाना आज़मी) की संवेदनशील प्रेम कहानी दिखाई गई है. स्पर्श को फ़िल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार और दो राष्ट्रीय पुरस्कार मिले.

उनकी अगली फ़िल्म चश्मे बद्दूर (1981) एक मज़ेदार रोमांटिक कॉमेडी थी, जिसमें तीन दोस्तों (फ़ारूख़ शेख़, रवि बासवानी, राकेश बेदी) और उनकी पड़ोसन (दीप्ति नवल) की कहानी को मनोरंजक और दिलकश अंदाज़ में पेश किया गया.

कथा (1983) और दिशा (1990) जैसी फ़िल्मों में सई परांजपे ने सामाजिक मुद्दों को हल्के-फुल्के ढंग से उठाया.

सई परांजपे अपनी कामकाजी दुनिया के बारे में बताती हैं, "मैं सिर्फ़ फ़िल्में ही नहीं टेलीविज़न भी करती हूँ, थिएटर भी करती हूँ, लिखती हूँ. मुझे लेखिका के तौर पर नाम पाना ज़्यादा पसंद है बनिस्बत निर्देशक के. मैं हमेशा कहती हूँ कि मैं अव्वल दर्जे की लेखिका हूँ और दोयम दर्जे की निर्देशक."

"बीच-बीच में बहुत सा थिएटर करती हूँ, मैं काफ़ी टेलीविज़न कर रही हूँ, मैंने बहुत से टेली सीरियल्स बनाए. मैंने अपना सारा ध्यान फ़िल्मकार बनने पर नहीं लगाया इसलिए मेरी फ़िल्में दूसरों के मुक़ाबले कम हैं."

बतौर फ़िल्मकार पुरुष प्रधान पेशे में दशकों से डटी रहने के सवाल पर सई परांजपे कहती हैं, "बहुत नेगेटिव बातें हैं मेरे पास आगे कभी सुनाऊंगी लेकिन अभी मैं इतना कहती हूं कि बतौर महिला निर्देशक मैंने हमेशा अपने आप को बहुत सम्मानित महसूस किया है."

"एक तो महिला होने के नाते कभी कहीं अटकाव नहीं हुआ. इसके अलावा मुझे लगता है कि महिला के तौर पर हम एक संवेदनशीलता लाते हैं. देखिए न महिला निर्देशकों को चाहे वो अपर्णा सेन हों, या ज़ोया हों या फिर सुमित्रा भावे हों."

"इन सब की फ़िल्मों में एक अलग संवेदनशीलता दिखती है जो शायद एक पुरुष निर्देशक की फ़िल्म में उस दर्जे की न हो. मुझे पता है कि मैं कई पुरुष निर्देशकों को नाराज़ कर दूँगी लेकिन ये तथ्य है कि वो इंसानी नज़रिए पर ज़्यादा ध्यान देती हैं."

फ़िल्मों में जाने से पहले सई परांजपे ने आठ साल दूरदर्शन के साथ बिताए थे.

उस दौर के बारे में परांजपे ने कहा, "हम छह लोग दूरदर्शन में भारतीय प्रोडक्शन के अग्रदूत या पायनियर थे. वहाँ हबीब तनवीर थे, पी कुमार वासुदेव थे, जिनका 'हम लोग' सीरियल बहुत लोकप्रिय हुआ था."

"शमा ज़ैदी थीं- बेगम क़ुदसिया ज़ैदी की बेटी. लेकिन वो कुछ समय बाद छोड़कर चली गईं और ए प्रताप और स्वदेश कुमार थे."

इस दौरान उनका वास्ता बीबीसी से भी पड़ा. परांजपे याद करती हैं, "हम लोगों के एक बेहतरीन टीचर प्रोफ़ेसर बीबीसी से आए थे. हमफ़्री बैरन, ब्राउन नहीं बैरन वो क्या ग़ज़ब के आदमी थे और उन्होंने हमें टेलीविज़न से प्यार करना, उसकी धड़कनों में बसना और उसकी आत्मा की समझ सिखाई."

दूरदर्शन में आठ साल बिताने के अनुभव को परांजपे याद करती हैं, "मुझे लगता है कि फ़िल्म निर्देशक के तौर पर मेरा असली करियर वहीं शुरू हुआ जब मैंने 'रैना बीती जाए' बनाई जो बाद में 'स्पर्श' बनी, और 'धुआँ धुआँ' बनाई जो बाद में 'चश्म-ए-बद्दूर' बनी."

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बच्चों के लिए शुरू किया थिएटर image BBC सई परांजपे बताती हैं कि उन्हें बच्चों से भी बहुत कुछ सीखने को मिलता था

सई परांजपे ने साल 1963 में नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से निकलने के बाद कुछ समय तक दिल्ली में थिएटर किया और उसके बाद एक साल फ़िल्म इंस्टीट्यूट में भी पढ़ाया था.

अपनी क्लास के छात्रों के बारे में बताते हुए परांजपे ने कहा, "अगर मैं आपको उन छात्रों के नाम बताऊँ जिन्हें मैंने फ़िल्म इंस्टीट्यूट में अभिनय वगैरह पढ़ाया तो मुझे यक़ीन है कि आप भी प्रभावित होंगे."

"रेहाना सुल्तान जिन्होंने 'दस्तक' फ़िल्म की थी, फिर जलाल आग़ा थे जो सबसे शरारती थे, न जाने कितनी बार उन्हें डाँटना पड़ा, साधु मेहर जिन्हें श्याम बेनेगल की 'अंकुर' के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. एक और शख़्स, जो अब सेलिब्रिटी हैं वो हैं राकेश पांडे जिन्हें भोजपुरी सिनेमा का अमिताभ कहते हैं."

सई परांजपे अपने जीवन में अपनी मां के योगदान को बेहद अहम मानती हैं. सई परांजपे का जन्म 1938 में पुणे में हुआ. उनके पिता यूरी स्लेप्टज़ॉफ एक रूसी वाटरकलर आर्टिस्ट थे और माँ शकुंतला परांजपे मराठी-हिंदी फ़िल्मों की अभिनेत्री, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं.

उन्होंने बीबीसी हिंदी के ख़ास कार्यक्रम 'कहानी ज़िंदगी की' में अपनी मां के बारे में बताया, "उनकी मौजूदगी मेरे जीवन की हर उस रचनात्मक चीज़ में रही है जो मैंने अब तक की है."

"आठ साल की उम्र में मेरी कहानियों की एक छोटी सी किताब छप कर आ गई. ये सुनने में काफ़ी शानदार लगता है लेकिन इसका सारा श्रेय मेरी माँ को ही जाता है. वो मेरे लिए बहुत महत्वाकांक्षी थीं."

बचपन में कहानियों का ये सफ़र जल्दी ही बच्चों के थिएटर की दुनिया तक पहुंचा.

इस सफ़र के बारे में खुद परांजपे बताती हैं, "मेरे दोस्त अरुण जोगलेकर जिनसे मैंने बाद में शादी की, वो भी रंगमंच में बहुत डूबे हुए थे, फिर राजगुरु और भालबा केलकर, जो एक प्रोफ़ेसर थे और पुणे में रंगमंच की बहुत नामी हस्ती थे और गोपीनाथ तलवलकर, हम सबने मिल कर बच्चों का थिएटर शुरू किया."

"ये बाक़ायदा टिकट लगा कर स्टेज पर होता था और बच्चे देखने आते थे. बच्चों का थिएटर करते हुए हमारी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था, क्योंकि हम बच्चों से बहुत कुछ सीखते हैं, तो उनके साथ काम करके ख़ूब मज़ा आ रहा था. तब तक मेरी अरुण के साथ शादी भी हो गई थी."

नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में नामांकन के बारे में उन्होंने बताया, "मैंने अरुण से कहा कि शादी का बस एक महीना हुआ है और मैं दिल्ली चली जाऊँ ये बड़ा अजीब सा नहीं लगेगा? उन्होंने कहा कि जाकर टेस्ट दे दो क्या पता वो तुम्हें लें ही ना, उम्मीद यही करें कि तुम्हें दाख़िला न मिले, लेकिन ऐसा नहीं हुआ."

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निर्देशक बनने की चाहत image BBC

नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के इंटरव्यू के बारे में उन्होंने कहा, "इंटरव्यू में मुझे बताया गया कि हम अमूमन लड़कियों को नहीं बुलाते हैं, मैंने पूछा क्यों? तो बताया कि लड़कियां आ तो जाती हैं लेकिन फिर उनकी शादी हो जाती है और पढ़ाई अधूरी छोड़ कर भाग जाती हैं. तो मैंने कहा था कि मेरे मामले में ऐसा नहीं होगा क्योंकि मैं तो पहले ही शादीशुदा हूँ."

बहरहाल परांजपे को नामांकन मिल गया, लेकिन वो शुरुआती कुछ महीनों में बोर होने लगीं थीं. लेकिन फिर इब्राहिम अल्काज़ी का असर उन पर ऐसा हुआ कि वे वहीं रह गईं.

इस बारे में उन्होंने बताया, "वे इतने शानदार टीचर थे, उन्हें इतना ज्ञान था और इतनी किताबें पढ़ी थीं और बहुत अच्छा बोलते थे, न सिर्फ़ थिएटर के बारे में बल्कि मुझे याद है कि उन्होंने हमें प्रभाववादी या इंप्रेशनिस्ट कला के बारे में भी काफ़ी कुछ पढ़ाया."

"उन्हें पेंटिंग और कला बहुत पसंद थी और वो मोने, माने, रेमब्रां और वान गॉग के बारे में बताते थे और वो सब मुझे याद रह गया."

सई परांजपे अपने बैच के साथियों को याद करते हुए कहती हैं, "ओम शिवपुरी मेरा सहपाठी था और सुधा – दोनों ने बाद में शादी कर ली, लेकिन सुधा शर्मा क्या ग़ज़ब की अभिनेत्री थीं."

उस दौर को याद करते हुए परांजपे ने बताया, "मैं काफ़ी गोल-मटोल भी थी, बहुत तगड़ी थी तो अल्काजी हमेशा मुझे डाँटते रहते थे कि सई तुम्हें वज़न घटाना होगा, तुम इतने मोटापे के साथ अभिनेत्री बनने की उम्मीद नहीं कर सकतीं."

"मैं अपने आप से कहती थी कि अभिनेत्री कौन बनना चाहता है, मैं अभिनेत्री नहीं बल्कि निर्देशक बनना चाहती हूँ, लेखिका बनना चाहती हूँ, तो बस अपना सर हिला कर कहती थी, हाँ हाँ, अभी डाइटिंग कर रही हूँ."

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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