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बाल गंगाधर तिलक की जयंती पर विशेष : गीता के संदेश से स्वतंत्रता का संकल्प

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New Delhi, 22 जुलाई . भारत के ऐसे स्वतंत्रता सेनानी, जिन्होंने गीता के रहस्य को स्वतंत्रता आंदोलन का मूल बना दिया. 23 जुलाई 1856 को जन्मे शख्स ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में न केवल राजनीतिक चेतना जगाई, बल्कि भगवद गीता के आध्यात्मिकता को भी स्वतंत्रता की राह का शस्त्र बना दिया. इनका नाम था बाल गंगाधर तिलक, जिन्हें देश ‘लोकमान्य तिलक’ के नाम से जानता है. ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा’, यह उद्घोष आज भी भारतीय चेतना में गूंजता है. लेकिन क्या आपने कभी सोचा कि इस महान विचार की नींव एक जेल में लिखी गई 400 पन्नों की किताब में पड़ी थी, जिसका नाम है- ‘गीता रहस्य’

1908 का साल था, जब तिलक ने क्रांतिकारियों के समर्थन में एक लेख लिखा और अंग्रेज सरकार ने उन्हें राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया. उन्हें 6 साल की सजा सुनाई गई और बर्मा के मंडाले जेल भेजा गया. वहां, एक क्रांतिकारी का मन अब दार्शनिक की गहराइयों में उतर चुका था. मंडाले जेल की दीवारों के बीच तिलक ने भगवद गीता को आत्मसात किया, लेकिन केवल धार्मिक ग्रंथ के रूप में नहीं, बल्कि कर्म, साहस और आत्मबल के स्रोत के रूप में. वहीं पर उन्होंने ‘श्रीमद भगवद गीता रहस्य’ की रचना की, जिसमें उन्होंने निष्काम कर्म को राष्ट्रसेवा से जोड़ा और बताया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए कर्मयोग ही एकमात्र रास्ता है. यह ग्रंथ स्वतंत्रता आंदोलन के लिए वैचारिक धुरी बन गया.

साल 1856 में रत्नागिरी, महाराष्ट्र के एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में जन्मे तिलक प्रारंभ से ही मेधावी थे. गणितज्ञ, दार्शनिक, पत्रकार और एक राष्ट्रवादी चिंतक के रूप में उनकी पहचान बनी. स्नातक होने के बाद उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाने की ठानी. उन्होंने महाराष्ट्र में नई शिक्षा प्रणाली के लिए डेक्कन एजुकेशन सोसायटी की स्थापना की और ‘केसरी’ नामक मराठी अखबार की शुरुआत की, जो जल्द ही ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ जनचेतना का मंच बन गया.

1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद भारतीय राजनीति में दो धाराएं बनीं. एक थी ‘मॉडरेट्स’ की, जो अंग्रेजों की न्यायप्रियता पर विश्वास करती थी और दूसरी थी उग्र राष्ट्रवादियों की, जिसमें तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल (बाल-लाल-पल) शामिल थे. तिलक ने ‘राजनीतिक भीख’ मांगने की कांग्रेस नीति का विरोध किया.

1896-97 में जब महाराष्ट्र प्लेग महामारी से जूझ रहा था, तिलक ने ब्रिटिश प्रशासन के अमानवीय रवैये की तीखी आलोचना की. उन्होंने कमिश्नर रैंड के खिलाफ लेख लिखे, जिससे प्रेरित होकर चापेकर बंधुओं ने रैंड की हत्या कर दी. तिलक को हत्या के लिए उकसाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया और 18 महीने की जेल हुई. यह वही मुकदमा था, जिसने उन्हें ‘लोकमान्य’- यानी जनता का प्रिय नेता बना दिया.

इसके बाद तिलक ने 1916 में होम रूल लीग की स्थापना की. यह आंदोलन स्वराज की मांग को सुसंगठित रूप में सामने लाया. यह वही दौर था जब उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल कायम की और लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार सभी वर्गों की एकजुटता देखी गई. तिलक के जीवन का यह दौर केवल राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक समरसता और सौहार्द का प्रतीक भी था. वे कहते थे कि यदि ईश्वर ने छुआछूत को स्वीकार किया है, तो मैं ऐसे ईश्वर को नहीं मानता.

1 अगस्त 1920 को जब महात्मा गांधी असहयोग आंदोलन की शुरुआत करने वाले थे, ठीक एक दिन पहले बाल गंगाधर तिलक का निधन हो गया. उनकी अंतिम यात्रा में लाखों लोग उमड़े. वह क्षण भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के पहले अध्याय का अंत और गांधी युग के प्रारंभ का संकेत था.

पंडित नेहरू ने 1956 में Lok Sabha में तिलक की प्रतिमा का अनावरण करते हुए कहा था कि अगर तिलक ने देश की चेतना और युवा वर्ग को न जगाया होता, तो शायद गांधीजी को वह नींव न मिलती, जिस पर उन्होंने आंदोलन की इमारत खड़ी की.

पीएसके/एएस

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