महेंद्र कुमार सिंह, नई दिल्ली: ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामाजिक अंतर्संबंधों की बहुलता से परिपूर्ण दक्षिण एशिया आज भूराजनीतिक तनाव के एक नए दौर में प्रवेश कर चुका है। चीन और पाकिस्तान द्वारा क्षेत्रीय सहयोग की एक नई संरचना -जो भारत को बाहर रखने की परिकल्पना पर आधारित है- दक्षिण एशिया की दीर्घकालिक स्थिरता और सामूहिक भविष्य के लिए गंभीर चुनौती प्रस्तुत करती है। यह पहल भारत की वैध कूटनीतिक भूमिका को सीमित करने के प्रयास के साथ ही इस क्षेत्र के छोटे देशों को भी एक असहज असमंजस में डालने के जोखिम से भरी है। चीन, पाकिस्तान इसमें बांग्लादेश को भी शामिल कर रहे हैं जो मोहम्मद यूनुस के राज में भारत विरोधियों का अड्डा बन गया है।
चीन और पाकिस्तान द्वारा प्रस्तावित नई क्षेत्रीय व्यवस्था का आधार यह है कि दक्षिण एशिया में भारत की भूमिका को सीमित कर, एक 'वैकल्पिक नेतृत्व' को प्रस्तुत किया जाए। परंतु यह विचार स्वयं अपने भीतर विरोधाभास समेटे हुए है। दक्षिण एशिया की समग्र संरचना इस प्रकार की है कि भारत को नज़रअंदाज़ करना अवास्तविक है तथा वह क्षेत्रीय सहयोग की किसी भी संभावित प्रक्रिया को अनिवार्य रूप से निष्क्रिय बना देता है। यह पहल ऐसे समय में सामने आई है जब दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) लगभग निष्क्रिय हो चुका है। साल 2016 में उरी आतंकी हमले के बाद भारत द्वारा इस्लामाबाद में आयोजित प्रस्तावित शिखर सम्मेलन से अलग होने के साथ ही सार्क की गतिविधियां सीमित हो गईं। जुलाई 2025 में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में निर्देश पर्यटकों पर हुए आतंकवादी हमले ने पाकिस्तान को बेनकाब करने की भारत की नीति को पुष्ट करता है। साथ ही भारत-पाक संबंधों की जटिलता, पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद की निरंतरता और भारत की सुरक्षा चिंताओं की गहराई को सामने लाता है।
क्षेत्रीय भू-राजनीतिक यथार्थ और भारत की केंद्रीयता
दक्षिण एशिया की संरचना को देखने पर यह स्पष्ट होता है कि भारत न केवल भौगोलिक दृष्टि से क्षेत्र के मध्य में स्थित है, बल्कि वह आर्थिक, सैन्य, रणनीतिक और कूटनीतिक दृष्टि से भी निर्णायक भूमिका निभाता है। भारत की अर्थव्यवस्था पाकिस्तान से 12 गुना बड़ी है, जनसंख्या 7 गुना अधिक है और विदेशी मुद्रा भंडार 45 गुना अधिक। इसके अलावा, रक्षा व्यय में भी भारत पाकिस्तान से पांच गुना आगे है। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि भारत के बिना कोई भी क्षेत्रीय मंच शक्ति-संतुलन और स्थायित्व के आवश्यक मानकों को पूरा नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त भारत की भूमिका केवल वर्चस्व आधारित नहीं रही है, जबकि क्षेत्रीय नेतृत्व की दृष्टि से भी उसने अनेक अवसरों पर जिम्मेदारीपूर्ण पहल की है।
कोविड-19 वैश्विक महामारी के दौरान भारत द्वारा ‘वैक्सीन मैत्री’ कार्यक्रम के अंतर्गत बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, श्रीलंका, अफगानिस्तान जैसे देशों को प्राथमिकता के आधार पर टीके दिए गए। साल 2017 में भारत ने ‘साउथ एशिया सैटेलाइट’ लॉन्च किया, जिससे पाकिस्तान को छोड़कर सभी सार्क सदस्य लाभान्वित हुए। यह पहल ‘क्षेत्रीय सार्वजनिक हित’ (regional public good) के भारतीय दृष्टिकोण को रेखांकित करती है। भारत की भूमिका मात्र संख्यात्मक नहीं है, वह इस क्षेत्र का Geostrategic Anchor भी है। चाहे वह व्यापार मार्ग हो, कनेक्टिविटी परियोजनाएं, या आपदा प्रबंधन की संरचनाएं- भारत की सक्रिय भागीदारी के बिना कोई भी क्षेत्रीय ढांचा व्यवहारिक नहीं रह सकता। सार्क का निष्क्रिय होना इसी यथार्थ की एक स्पष्ट पुष्टि है।
दक्षिण एशिया: सहयोग नहीं, प्रतिस्पर्धा की ओर?
ऐसे में यह प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक है कि क्या दक्षिण एशिया वास्तव में सहयोग की भावना की ओर बढ़ रहा है, या यह क्षेत्र प्रतिस्पर्धात्मक गुटबंदी और रणनीतिक ध्रुवीकरण का नया शिकार बनता जा रहा है? सार्क के पतन के बाद BIMSTEC जैसे मंचों की भूमिका बढ़ी है, किंतु वे भी सीमित हैं। यदि भारत को दरकिनार कर कोई नया मंच उभरता है, तो इसका सीधा संदेश यह होगा कि क्षेत्रीय सहयोग अब समावेशन के सिद्धांत पर नहीं, बल्कि रणनीतिक असुरक्षा और प्रतिस्पर्धा के आधार पर परिभाषित हो रहा है। इससे न केवल संस्थागत स्थायित्व प्रभावित होगा, बल्कि दक्षिण एशिया की साझा विकास आकांक्षाएं भी बाधित होंगी।
क्या छोटे देश इस खेल में सहभागी बनेंगे?
नेपाल, भूटान, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे देश -जो भौगोलिक रूप से भारत से घिरे हैं- अपनी विदेश नीति में संतुलन बनाने की लगातार कोशिश करते रहे हैं। चीन द्वारा इन्हें एक अलग क्षेत्रीय मंच में शामिल करने की कोशिश इस संवेदनशील संतुलन को बिगाड़ सकती है। विशेषकर तब, जब इन देशों की अधिकांश आयात-निर्यात निर्भरता भारत पर ही है और कनेक्टिविटी से लेकर ऊर्जा साझेदारी तक की संरचनाएं भारतीय सहयोग पर आधारित हैं। यह कहना गलत न होगा कि ये देश चीन-पाकिस्तान की रणनीति का उपयोग भारत से बेहतर सौदेबाज़ी के लिए कर सकते हैं, किंतु वे दीर्घकालिक रूप से भारत-विरोधी ध्रुव में अपनी स्थिति नहीं चाहते। उनकी सामरिक चेतना उन्हें इस बात के लिए सचेत करती है कि भारत के साथ टकराव किसी भी प्रकार से उनके हित में नहीं है।
भारत की चुनौती और अवसर
भारत के समक्ष यह स्पष्ट चुनौती है कि वह अपने पड़ोसियों को एक बार फिर यह विश्वास दिलाए कि भारत नेतृत्व करना चाहता है, प्रभुत्व नहीं। उसके प्रयास क्षेत्रीय शांति, स्थायित्व और साझी समृद्धि की ओर केंद्रित है। भारत को अब अपनी पड़ोसी नीति को और सुदृढ़ करना होगा—व्यापार, शिक्षा, स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर सहयोग बढ़ाते हुए। भारत को चाहिए कि वह BIMSTEC, IORA, और SCO जैसे अन्य मंचों में अपनी सक्रियता बनाए रखते हुए, सार्क को पुनर्जीवित करने की वास्तविक संभावना की तलाश भी करे, भले ही वह पाकिस्तान के बाहर ही क्यों न हो।
दक्षिण एशिया की वर्तमान स्थिति इस बात की गवाही देती है कि भारत की अनुपस्थिति में कोई भी कूटनीतिक या संस्थागत ढांचा दीर्घकालिक नहीं हो सकता। भारत की केंद्रीयता केवल भौगोलिक नहीं है, बल्कि वह ऐतिहासिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामरिक सभी स्तरों पर स्थापित है। बिना भारत के चीन और पाकिस्तान द्वारा एक नए समूह के निर्माण की पहल न केवल खतरनाक कूटनीतिक प्रयोग है, बल्कि यह क्षेत्र की सामूहिक भविष्य को भी संकट में डालता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि दक्षिण एशियाई देश भारत की भूमिका को केवल एक 'बड़ी शक्ति' के रूप में न देखकर, उसे एक स्थिरता प्रदाता और विश्वसनीय साझेदार के रूप में स्वीकार करें—क्योंकि दक्षिण एशिया का स्थायित्व, अंततः, भारत के साथ है, भारत के बाहर नहीं। लेखक डॉक्टर महेंद्र कुमार सिंह, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में सहायक प्रफेसर हैं
चीन और पाकिस्तान द्वारा प्रस्तावित नई क्षेत्रीय व्यवस्था का आधार यह है कि दक्षिण एशिया में भारत की भूमिका को सीमित कर, एक 'वैकल्पिक नेतृत्व' को प्रस्तुत किया जाए। परंतु यह विचार स्वयं अपने भीतर विरोधाभास समेटे हुए है। दक्षिण एशिया की समग्र संरचना इस प्रकार की है कि भारत को नज़रअंदाज़ करना अवास्तविक है तथा वह क्षेत्रीय सहयोग की किसी भी संभावित प्रक्रिया को अनिवार्य रूप से निष्क्रिय बना देता है। यह पहल ऐसे समय में सामने आई है जब दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) लगभग निष्क्रिय हो चुका है। साल 2016 में उरी आतंकी हमले के बाद भारत द्वारा इस्लामाबाद में आयोजित प्रस्तावित शिखर सम्मेलन से अलग होने के साथ ही सार्क की गतिविधियां सीमित हो गईं। जुलाई 2025 में जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में निर्देश पर्यटकों पर हुए आतंकवादी हमले ने पाकिस्तान को बेनकाब करने की भारत की नीति को पुष्ट करता है। साथ ही भारत-पाक संबंधों की जटिलता, पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद की निरंतरता और भारत की सुरक्षा चिंताओं की गहराई को सामने लाता है।
क्षेत्रीय भू-राजनीतिक यथार्थ और भारत की केंद्रीयता
दक्षिण एशिया की संरचना को देखने पर यह स्पष्ट होता है कि भारत न केवल भौगोलिक दृष्टि से क्षेत्र के मध्य में स्थित है, बल्कि वह आर्थिक, सैन्य, रणनीतिक और कूटनीतिक दृष्टि से भी निर्णायक भूमिका निभाता है। भारत की अर्थव्यवस्था पाकिस्तान से 12 गुना बड़ी है, जनसंख्या 7 गुना अधिक है और विदेशी मुद्रा भंडार 45 गुना अधिक। इसके अलावा, रक्षा व्यय में भी भारत पाकिस्तान से पांच गुना आगे है। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि भारत के बिना कोई भी क्षेत्रीय मंच शक्ति-संतुलन और स्थायित्व के आवश्यक मानकों को पूरा नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त भारत की भूमिका केवल वर्चस्व आधारित नहीं रही है, जबकि क्षेत्रीय नेतृत्व की दृष्टि से भी उसने अनेक अवसरों पर जिम्मेदारीपूर्ण पहल की है।
कोविड-19 वैश्विक महामारी के दौरान भारत द्वारा ‘वैक्सीन मैत्री’ कार्यक्रम के अंतर्गत बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, श्रीलंका, अफगानिस्तान जैसे देशों को प्राथमिकता के आधार पर टीके दिए गए। साल 2017 में भारत ने ‘साउथ एशिया सैटेलाइट’ लॉन्च किया, जिससे पाकिस्तान को छोड़कर सभी सार्क सदस्य लाभान्वित हुए। यह पहल ‘क्षेत्रीय सार्वजनिक हित’ (regional public good) के भारतीय दृष्टिकोण को रेखांकित करती है। भारत की भूमिका मात्र संख्यात्मक नहीं है, वह इस क्षेत्र का Geostrategic Anchor भी है। चाहे वह व्यापार मार्ग हो, कनेक्टिविटी परियोजनाएं, या आपदा प्रबंधन की संरचनाएं- भारत की सक्रिय भागीदारी के बिना कोई भी क्षेत्रीय ढांचा व्यवहारिक नहीं रह सकता। सार्क का निष्क्रिय होना इसी यथार्थ की एक स्पष्ट पुष्टि है।
दक्षिण एशिया: सहयोग नहीं, प्रतिस्पर्धा की ओर?
ऐसे में यह प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक है कि क्या दक्षिण एशिया वास्तव में सहयोग की भावना की ओर बढ़ रहा है, या यह क्षेत्र प्रतिस्पर्धात्मक गुटबंदी और रणनीतिक ध्रुवीकरण का नया शिकार बनता जा रहा है? सार्क के पतन के बाद BIMSTEC जैसे मंचों की भूमिका बढ़ी है, किंतु वे भी सीमित हैं। यदि भारत को दरकिनार कर कोई नया मंच उभरता है, तो इसका सीधा संदेश यह होगा कि क्षेत्रीय सहयोग अब समावेशन के सिद्धांत पर नहीं, बल्कि रणनीतिक असुरक्षा और प्रतिस्पर्धा के आधार पर परिभाषित हो रहा है। इससे न केवल संस्थागत स्थायित्व प्रभावित होगा, बल्कि दक्षिण एशिया की साझा विकास आकांक्षाएं भी बाधित होंगी।
क्या छोटे देश इस खेल में सहभागी बनेंगे?
नेपाल, भूटान, श्रीलंका और बांग्लादेश जैसे देश -जो भौगोलिक रूप से भारत से घिरे हैं- अपनी विदेश नीति में संतुलन बनाने की लगातार कोशिश करते रहे हैं। चीन द्वारा इन्हें एक अलग क्षेत्रीय मंच में शामिल करने की कोशिश इस संवेदनशील संतुलन को बिगाड़ सकती है। विशेषकर तब, जब इन देशों की अधिकांश आयात-निर्यात निर्भरता भारत पर ही है और कनेक्टिविटी से लेकर ऊर्जा साझेदारी तक की संरचनाएं भारतीय सहयोग पर आधारित हैं। यह कहना गलत न होगा कि ये देश चीन-पाकिस्तान की रणनीति का उपयोग भारत से बेहतर सौदेबाज़ी के लिए कर सकते हैं, किंतु वे दीर्घकालिक रूप से भारत-विरोधी ध्रुव में अपनी स्थिति नहीं चाहते। उनकी सामरिक चेतना उन्हें इस बात के लिए सचेत करती है कि भारत के साथ टकराव किसी भी प्रकार से उनके हित में नहीं है।
भारत की चुनौती और अवसर
भारत के समक्ष यह स्पष्ट चुनौती है कि वह अपने पड़ोसियों को एक बार फिर यह विश्वास दिलाए कि भारत नेतृत्व करना चाहता है, प्रभुत्व नहीं। उसके प्रयास क्षेत्रीय शांति, स्थायित्व और साझी समृद्धि की ओर केंद्रित है। भारत को अब अपनी पड़ोसी नीति को और सुदृढ़ करना होगा—व्यापार, शिक्षा, स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर सहयोग बढ़ाते हुए। भारत को चाहिए कि वह BIMSTEC, IORA, और SCO जैसे अन्य मंचों में अपनी सक्रियता बनाए रखते हुए, सार्क को पुनर्जीवित करने की वास्तविक संभावना की तलाश भी करे, भले ही वह पाकिस्तान के बाहर ही क्यों न हो।
दक्षिण एशिया की वर्तमान स्थिति इस बात की गवाही देती है कि भारत की अनुपस्थिति में कोई भी कूटनीतिक या संस्थागत ढांचा दीर्घकालिक नहीं हो सकता। भारत की केंद्रीयता केवल भौगोलिक नहीं है, बल्कि वह ऐतिहासिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और सामरिक सभी स्तरों पर स्थापित है। बिना भारत के चीन और पाकिस्तान द्वारा एक नए समूह के निर्माण की पहल न केवल खतरनाक कूटनीतिक प्रयोग है, बल्कि यह क्षेत्र की सामूहिक भविष्य को भी संकट में डालता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि दक्षिण एशियाई देश भारत की भूमिका को केवल एक 'बड़ी शक्ति' के रूप में न देखकर, उसे एक स्थिरता प्रदाता और विश्वसनीय साझेदार के रूप में स्वीकार करें—क्योंकि दक्षिण एशिया का स्थायित्व, अंततः, भारत के साथ है, भारत के बाहर नहीं। लेखक डॉक्टर महेंद्र कुमार सिंह, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में सहायक प्रफेसर हैं
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